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ऋ꣢च꣣ꣳ सा꣡म꣢ यजामहे꣣ या꣢भ्यां꣣ क꣡र्मा꣢णि कृ꣣ण्व꣡ते꣢ । वि꣡ ते सद꣢꣯सि राजतो य꣣ज्ञं꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ वक्षतः ॥३६९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

ऋचꣳ साम यजामहे याभ्यां कर्माणि कृण्वते । वि ते सदसि राजतो यज्ञं देवेषु वक्षतः ॥३६९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ꣡च꣢꣯म् । सा꣡म꣢꣯ । य꣣जामहे । या꣡भ्या꣢꣯म् । क꣡र्मा꣢꣯णि । कृ꣣ण्व꣡ते꣢ । वि । ते꣡इति꣢ । स꣡द꣢꣯सि । रा꣣जतः । यज्ञ꣢म् । दे꣣वे꣡षु꣢ । व꣣क्षतः ॥३६९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 369 | (कौथोम) 4 » 2 » 3 » 10 | (रानायाणीय) 4 » 2 » 10


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र का देवता ‘ऋक्सामौ’ है, इसमें ऋक् और साम के अध्ययन का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हम (ऋचम्) ऋग्वेद का, और (साम) सामवेद का (यजामहे) अर्थज्ञानपूर्वक तथा गीतिज्ञानपूर्वक अध्ययन करते हैं, और अध्यापन कराते हैं (याभ्याम्) जिनसे अर्थात् जिनका अध्ययन-अध्यापन करके (कर्माणि) तदुक्त कर्मों को वेदपाठी लोग (कृण्वते) करते हैं। (ते) वे ऋग्वेद और सामवेद (सदसि) निवासगृह तथा सभागृह में (राजतः) शोभा पाते हैं, क्योंकि वहाँ उनका पाठ और गान किया जाता है। और वे (देवेषु) विद्वानों में (यज्ञम्) यज्ञ-भावना को (वक्षतः) प्राप्त कराते हैं ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

हमें चाहिए कि ऋग्वेद, सामवेद, सामयोनि ऋचा, ऋचा पर किया जानेवाला सामगान, यह सब योग्य गुरुओं से अर्थज्ञानपूर्वक पढ़कर घर में, सभा में और विभिन्न समारोहों के अवसरों पर सस्वर वेदपाठ और सामगान किया करें ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र नाम से और कश्यप नाम से इन्द्र का स्मरण करने से, उसकी अर्चनार्थ प्रेरणा होने से, उसके ध्यान का फल प्रतिपादित होने से, उसके दान की याचना होने से, दिव्य उषा का प्रभाव वर्णित होने से और ऋक् तथा साम के अध्ययन का संकल्प वर्णित होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की तृतीय दशति समाप्त ॥ चतुर्थ अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

ऋक्सामौ देवते। ऋक्सामाध्ययनविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

वयम् (ऋचम्) ऋग्वेदम् (साम) सामवेदं च (यजामहे) अर्थज्ञानपूर्वकं गीतिज्ञानपूर्वकं च अधीमहे अध्यापयामश्च। यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु। संगतिकरणं चात्र अध्ययनं, दानं च अध्यापनम्। (याभ्याम्) ऋक्सामभ्याम्, ययोः अध्ययनेनाध्यापनेन च इत्यर्थः (कर्माणि) तदुक्तानि कर्त्तव्यकर्माणि (कृण्वते) कुर्वन्ति तज्ज्ञाः। (ते) ऋक्साम्नी (सदसि) निवासगृहे सभागृहे च (राजतः) शोभेते, गृहेषु सभासु च तेषां पाठो गानं च क्रियते इत्यर्थः, (देवेषु) विद्वत्सु च (यज्ञम्) यज्ञभावनाम् (वक्षतः) वहतः प्रापयतः। वह प्रापणे धातोर्लेटि रूपम् ॥१०॥

भावार्थभाषाः -

अस्माभिः ऋग्वेदं सामवेदं सामयोनिरूपामृचम् ऋच्यधूढं सामगानं च सर्वमेतद् योग्येभ्यो गुरुभ्योऽर्थज्ञानपूर्वकमधीत्य गृहे सभायां विभिन्नसमारोहेषु च सस्वरं वेदपाठः सामगानं च विधातव्ये ॥१०॥ अत्रेन्द्रनाम्ना कश्यपनाम्ना चेन्द्रस्य स्मरणात्, तदर्चनार्थं प्रेरणात्, तद्ध्यानफलप्रतिपादनात्, तद्दानयाचनात्, दिव्याया उषसः प्रभाववर्णनाद्, ऋक्सामाध्ययनसंकल्पवर्णनाच्चैतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुर्थे प्रपाठके द्वितीयार्धे तृतीया दशतिः ॥ इति चतुर्थेऽध्याये द्वितीयः खण्डः ॥

टिप्पणी: १. अथ० ७।५४।१ ऋषिः ब्रह्मा, देवते ऋक्साम्नी। ‘कृण्वते’, ‘वि ते’ ‘वक्षतः’ इत्यत्र क्रमेण ‘कुर्वते’, ‘एते’, ‘यच्छतः’ इति पाठः।